ऋषि अष्टावक्र

 हमारे देश में अष्टावक्र नाम के एक ऋषि हुए हैं जो देखने में कुरूप और आठ जगह से टेढ़े-मेढ़े थे। इसलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।एक बार की बात है राजा जनक अपने राज्य में घूम रहे थे और उनके सैनिक उनके लिए रास्ते खाली कराते जा रहे थे। किसी को भी रास्ते पर चलने की आज्ञा नहीं थी। सैनिकों ने देखा कि आगे एक टेड़ा मेड़ा आदमी आ रहा है। उससे रास्ते से हटने के लिए कहा लेकिन उस ब्राह्मण ने हटने से मना कर दिया ।और कहा जाओ अपने राजा से कहो कि प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर  अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित नहीं है। राजा अनीति करे तो ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह उसे रोके और समझाएं। इसलिए आप  अधिकारीगण राजा तक मेरा संदेश पहुंचाएं और कहें कि अष्टावक्र ने अनुपयुक्त आदेश को मानने से इनकार कर दिया है । वह हटेंगे नहीं और राजपथ पर ही चलेंगे। सैनिक अष्टावक्र को गिरफ्तार कर राजा के सामने ले गए और सारा वृत्तांत कह सुनाया। राजा जनक ने तुरंत उस तेजस्वी ब्राह्मण को पहचाना, और कहा कि जिस राजा के राज्य में ऐसे तेजस्वी निर्भीक ब्राह्मण है जो राजा को सच्चाई का रास्ता दिखाने का साहस करता है तो वह देश धन्य है। ऐसे निर्भीक ब्राह्मण राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं। उन्हें दंड नहीं सम्मान दिया जाना चाहिए । राजा जनक ने तत्काल उनसे माफी मांगते हुए अपने  आदेश को वापस ले लिया और उन्हें अपने राज्य का राजगुरु बनने के लिए निवेदन किया। बाद में अष्टावक्र ने  राजा जनक के आग्रह को स्वीकार कर लिया।
      महर्षि अष्टावक्र जब राजा जनक के निमंत्रण को पाकर  उनकी सभा में पहुंचे तो सभा में उपस्थित लोग उनके टेढ़े-मेढ़े शरीर और उनकी कुरूपता को देखकर के हंसने लगे। ऋषि को बुरा नहीं लगा ,लेकिन सभा में उपस्थित लोगों के हंसने पर उन्हें करारा जवाब देना जरूरी समझा। इसलिये  उन्होंने कहा कि हे सभासदो मुझे क्षमा करें शायद मैं गलत सभा में आ गया हूं । यह तो कोई चर्म कारों की सभा लगती है। जहां लोग व्यक्ति के चमड़े  के पारखी हैं । और यह कह कर वे मुड़े और बापस चल दिये।
           महाराजा जनक की जब ऋषि पर दृष्टि पड़ी तो वह आसन छोड़कर ऋषि के पीछे भागे और उन्हें आदर के साथ सभा में लाकर  उचित आसन दिया। जनकजी ने सभा जनों से महर्षि का परिचय कराते हुए कहा कि यह महर्षि अष्टावक्र हैं जो बहुत बड़े विद्वान और धर्मज्ञ हैं। इनके राजगुरु बनने से मैं , यह सभा और मेरे राज्य की जनता लाभान्वित होगी।
      बाद में सभा में उपस्थित लोगों ने एक स्वर में उनसे माफी मांगी और कहा कि ऋषिवर आप हमें माफ कर दें । आपने हमारी आंखें खोल दी हैं। हम आपको पहचान नहीं सके ।आपके रंग रूप को  देखा लेकिन आप के ऋषित्व  को नहीं देख सके।       
        इसके बाद महर्षि अष्टावक्र राजा जनक के राज्य के धर्मगुरु कहलाए और उनके रहते हुए प्रजा के लोगों को कभी दुख या अन्याय का सामना नहीं करना पड़ा।
          ऐसे थे महर्षि अष्टावक्र और राजा जनक।
    हमें अपने पूर्वजों पर और ऋषियों पर गर्व होना चाहिए और हमें गर्व है।🚩🚩
SP Chauhan

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