पत्रकारिता का पतन -भाग-1

पत्रकारिता का पतन समाज की गिरावट को दिखाता है।
        यूं तो समाज के सभी क्षेत्रों में गिरावट आई है और उसमें पत्रकारिता भी अछूती नहीं रही है।लोकतंत्र के चौथा स्तंभ जिसे पत्रकारिता कहते हैं में भारी नैतिक पतन को देखा जारहा है। मैं यह नहीं कह रहा कि बाकी तीन शेष स्तंभ न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में गिरावट नहीं आई है या कम है!
         सच मानो तो जिस गति से हमने विज्ञान में तरक्की की है उसी गति से नैतिक मूल्यों का ह्रास ह़ुआ है। इसका यह मतलब नहीं कि दोनों का आपस में कोई तालमेल है। तालमेल है भी और नहीं भी है। सच्चाई यह है कि जब आध्यात्मिक उन्नति होती है तो नैतिक मूल्यों का उद्भव होता है और जब आध्यात्मिक उन्नति के बदले भौतिक उन्नति होती है तो भौतिक संपदा पाने के लिए चरित्र पतन होने लगता है। यह नियम चारों स्तंभों पर लागू है।लेकिन मैं केवल आज पत्रकारिता पर ही बात करूंगा, जो मेरा मूल विषय है।             अखबार निकालना घाटे का सौदा होता है और जितना खर्चा अखबार निकालने में आता है उतनी कमाई कर लेना या खर्चे पूरे करना बहुत टेढ़ी खीर है। बहुत से औद्योगिक घराने इस क्षेत्र में आए और वह देर तक टिक नहीं पाए। जो टिके हैं वे गला घोंटू व्यवस्था और पत्रकारों को दिये जाने वाले देन और सुविधाओं में कानूनों के उल्लंघन के दोषी हैं।
        इस बात की पुष्टि के लिए मैं एक कहानी सुनाना चाहता हूं। संक्षेप में सार यह है कि एक सज्जन ने अखबार की दुनिया की एक बड़ी शख्सियत से कहा कि हमें आपसे सलाह लेनी है,हमारा अखबार चल नहीं रहा है यानी घाटे में जा रहा है। जो सलाह देने वाले थे उन्होंने कहा ठीक है भाई मैं प्रोफेशनल आदमी हूं, फीस लूंगा।आपको सलाह लेनी है तो  जगह और समय तय कर ले मेरी फीस 50हजार रुपये होगी। यह करीब 20 साल पुरानी बात है। बातों के क्रम में सलाह देने का समय आ गया तब उन्होंने सलाह लेने वाले से पहले अपनी फीस ली और जेब में रख ली। सलाह लेने वाले ने कहा कि हमारा अखबार घाटे में चल रहा है 2 महीने हो गए क्या करें? उन्हें सलाह मिली कि अखबार बंद कर दो। कहने का मतलब है फीस भी चली गई और सलाह दी अखबार बंद करने की मिली। कहने का संदर्भ यह निकला कि जो लोग दो माह भी घाटा नहीं उठा सकते उन्हें अखबार नहीं निकालना चाहिए। 
     जो पत्रकारिता के विषय में नहीं जानते हैं उनको मैं यह बता दूं कि जब व्यक्ति के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं और उसको कहीं से मदद नहीं मिलती तब वह पत्रकार के पास जाता है। केबल यह आम आदमी की बात नहीं है इनमें बड़े-बड़े पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी नेता और न्यायाधीष भी उम्मीद के साथ मीडिया के पास आये हैं।
         लेकिन पत्रकार कहां  जाये और स्वयं उसकी क्या हालत होती है यह वही जानता है ? पत्रकारिता में अच्छा वेतन पाने वाले बहुत कम लोग होते हैं।जिन्हें हम स्टाफ रिपोर्टर भी कहते हैं। बाकी इस अखबार जगत ने कई और उपनाम निकाले हुए हैं अपना धंधा चलाने के लिए। उसमें एक नाम है स्ट्रिंगर।  इसे हिंदी में अंशकालिक संवाददाता भी कहते हैं । लेकिन नाम के विपरीत यह एक 24 घंटे का बिना वेतन का गैर कानूनी मुलाजिम होता है। यह बंधुआ मजदूर होता है जिसके काम करने की कोई समय सीमा नहीं होती, कोई छुट्टी नहीं होती। जो मानदेय राशि के नाम पर उसे मिलता है उससे दो वक्त की रोटी खाना भी संभव नहीं है। ऊपर से संस्थान का संपादक उसे एक कटोरा पकड़ा देता है इस कटोरी का आशय यह है अपने लिए कमा कर खा लेना और हमारे लिए इसमें रख ले आना। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कटोरे में जो कमाई की वस्तु होती है उस में 20 से लेकर 50 परसेंट तक रिपोर्टर का होता है शेष माल संस्थान का। संस्कारी भाषा में इसे विज्ञापन कहते हैं।अब इस व्यवस्था में पत्रकार से और ज्यादा उम्मीद करना  बेकार है। वह अपने बच्चे पालने के लिए चाहे ब्लैक मेलिंग करे,दलाली करे या सट्टे और गांजे के अड्डों पर जाकर के मंथली वसूली करे।
             कहने को तो सरकार ने पत्रकारों की हालत और व्यथा सुनने के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया बनाई हुई है और इसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिबृत मुख्य न्यायाधीश होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य तो यह है यहां से पत्रकारों को न्याय नहीं मिलता फैसला तो होता है लेकिन प्रबंधकों के पक्ष में चला जाता है। पिछले दिन तो एक ऐसे प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष थे जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में फिर भी फैसला ऐसा नहीं दिया इससे किसी प्रकार का भला हुआ हो। शत प्रतिशत फैसले प्रबंधकों के हक में चले गये।  कहने का सारांश यह  कि पत्रकार को नियम विरुद्ध विज्ञापन लाने का काम करना पड़ता है,जबकि हर संस्थान में विज्ञापन विभाग इस काम के लिए अलग से होता है नियमानुसार पत्रकार को विज्ञापन लाने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए। 
         ब्लैक मेलिंग, मंथली वसूली तो बहुत ही निकृष्ट काम हैं जो नहीं करने चाहिए। इससे तो अच्छा है सड़क पर बैठकर आदमी जूता पालिश करे या पान बेचे। इससे बचने के लिए एक ही रास्ता है कि आदमी अपना कोई ऐसा रोजगार करें जिससे परिवार की दाल रोटी चलती रहे और पत्रकारिता में भी कोई व्यवधान ना आए। 
       फिर पत्रकार में ईमानदारी कहां से आए ? मेरा कहना तो यह है का जो वास्तव में ही पत्रकारिता करना चाहते हैं और इमानदारी से समाज सेवा करने की इच्छा रखते हैं उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए पहले कोई निजी कारोबार स्थापित करना चाहिए। इसलिए मेरी सलाह तो यह है जो लोग पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हें सोशल मीडिया में अपना दमखम दिखाना चाहिए क्योंकि सोशल मीडिया ने सिद्ध कर दिया है वह प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भी ज्यादा सशक्त है और इसकी रीडर संख्या या कहिए देखने वालों की संख्या ज्यादा हो जाती है। लेकिन ध्यान  यही रहे कि हम जो भी लिखे या दिखाएं वह समाज के हित में हो और उसका एक-एक शब्द में पत्रकार की ईमानदारी झलकती हो।

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