होली का वैदिक महत्व
वैदिक धर्म में होली और आज
=================एसपी चौहान
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाये जाने वाले पर्व होली का प्राचीन नाम ‘‘वासन्तिक नवसस्येष्टि’’ है। यह उत्सव-पर्व वसन्त ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। चैत्र कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को एक दूसरे के चेहरे पर रंग लगाकर या जल में घुले हुए रंग को एक दूसरे पर डाल कर तथा परस्पर मिष्ठान्न का आदान-प्रदान कर इस पर्व को मनाने की परम्परा चली आ रही है। यह भी परम्परा है कि इस पर्व के दिन पुराने मतभेदों, वैमनस्य व शत्रुता आदि को भुला कर नये मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का आरम्भ किया जाता है। लेकिन आज होली का त्यौहार विकृत हो गया है जिसमें वैदिक परंपरा दिखाई नहीं देती प्राकृतिक रंगों की बजाए घातक रसायनों और पेंट आदि का भी प्रयोग होने लगा है जो न पर्यावरण के लिए ठीक है न स्वास्थ्य के लिए।
इस ऋतु में चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों के खिले होने से वातारण भी रंग-तरंग-मय या रंगीन सा होता है। इस कारण वासन्ती नवसस्येष्टि, अपर नाम होली, को रंगो के पर्व की उपमा दी जा सकती है। वसन्त ऋतु भारत में होने वाली 6 ऋतुओं का राजा है। वसन्त ऋतु में शीत ऋतु का अवसान हो जाता है और वायुमण्डल शीतोष्ण जलवायु वाला होता है। वृक्षों में हरियाली और नाना प्रकार के फूल व हरी पत्तियां सारी पृथिवी पर सर्वत्र दिखाई देतीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने महत्वपूर्ण उद्धेश्य से अपना श्रृंगार किया है। यह श्रृंगार वसन्त ऋतु व चैत्र के महीने से आरम्भ होने वाले नवसंवत्सर का स्वागत करने के लिए ही किया जा रहा प्रतीत होता है। टेसू के वृक्षों पर फूलों से लदी हुई डालियां मनोहारी होती हैं और पहले टेसू के फूलों को पानी में डालकर होली का रंग बनाया जाता था जो न केवल प्राकृतिक होता था बलि से सुगंधी और शरीर को हानि रहित होता था।
होली पर पूर्णिमा वाले दिन यज्ञ करने की परंपरा थी लेकिन कालांतर में यह परंपरा बदल गई और हम देर रात्रि को होली का दहन करने लगे।अब हम इसके लिए बहुत सारी लकडि़यों को एकस्थान पर एकत्रित कर अवैदिक विधि से पूजा-अर्चना कर उसमें अग्नि प्रज्जवलित कर दी जाती है। कुछ समय तक वह लकडि़या जलने के बाद बुझ जाती है। लोग यह समझते हैं कि उन्होंने कोई बहुत बड़ा धार्मिक कृत्य कर लिया है जबकि यह पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। होली को इस रूप में जलाना प्राचीन लुप्त प्रथा (यज्ञ)की ओर संकेत करता है।
सृष्टि के आरम्भ से ही वेदों की प्रेरणा के अनुसार अग्निहोत्र-यज्ञ करने की प्रथा हमारे देश में रही है। आज भी यह यज्ञ अनेक लोग अपने घरों में करते हैं।आर्य समाज मन्दिरों व आर्यो के घरों में यज्ञ नियमित रूप से किये जाते हैं। पूर्णिमा व अमावस्या के दिन पक्षेष्टि यज्ञ करने का प्राचीन शास्त्रों मे विधान है जिन्हें दर्ष व पौर्णमास नामों से जाना जाता है। होली का दिन पूर्णिमा का दिन होता है। फाल्गुन के महीने में इस दिन किसानो के खेतों मे गेहूं की फसल लहलहा रही होती है।गेहूं की बालियों में गेहूं के दाने पूरी तरह बन चुके हैं, अब उनको सूर्य की धूप चाहिये जिससे वह पक सकें। इन गेहूं की बालियों वा इनके भुने हुए दानों को होला कहते हैं। कुछ दिनों बाद ही वह फसल पक कर तैयार हो जायेगी और उसे काटकर किसान अपने घर के खलिहानों में संभालेगे । इस संग्रहित अन्न से पूरे वर्ष भर तक उनका परिवार व देशवासी उपभोग करेगें जिससे सबको बल, शक्ति , ऊर्जा, आयु , सुख, प्रसन्नता व आनन्द आदि की उपलब्धि होगी। गेहूं की बालियों अथवा होला को पूर्णिमा के यज्ञ में डालने से वह अग्नि देवता द्वारा संसार के समस्त प्राणियों व देवताओं को पहुँच जाती हैं और देवताओं का भाग उन्हें देने के बाद कृषक व अन्य लोग उसका उपयोग व उपभोग करने के लिए पात्र बन जाते हैं।
होली का पौराणिक विधान उसी नव-अन्न-इष्टि यज्ञ की स्मृति को ताजा करता है। इसी कारण प्राचीन काल मे इस पर्व को नवसस्येष्टि कहा जाता था। आज के दिन होना तो यह चाहिये कि होली का स्वरूप सुधारा जाये। होली रात्रि मे न जलाकर दिन में 10-11 बजे के बीच गांव-मुहल्ला के सभी लोगों की उपस्थिति मे एक स्थान पर वृहत्त यज्ञ के अनुष्ठान के रूप में आयोजित की जाये। कोई वैदिक विद्वान जो यज्ञ के विशेषज्ञ हो, उस यज्ञ को कराये। उसका महत्व उपस्थित जनता को विदित कराये और यज्ञ के अनन्तर सभी स्त्री-पुरूष मिलकर एक दूसरे को शुभकामनायें दें और अपनी ओर से मिष्ठान्न वितरित करे। वहां एक बड़ी दावत या लंगर भी होली या नवसस्येष्टि पर्व के उपलक्ष्य में किया जा सकता है।
लोकाचार व प्रचलित व्यवस्था के अनुसार यदि चाहे तो प्राकृतिक रंग का तिलक-टीका चेहरे पर लगाकर शुभकामनाओ का परस्पर आदान-प्रदान भी किया जा सकता है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था के अनुसार चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र का एक-एक पर्व है जिनके नाम क्रमशः श्रावणी या रक्षा-बन्धन, दशहरा या विजयादशमी, दीपावली या शारदीय नवसस्येष्टि एवं होली या वासन्ती नवसस्येष्टि हैं। हमारे यहां प्राचीन काल से ही यज्ञों की परम्परा रही है। प्रत्येक पूर्णिमा व अमावस्या को पक्षेष्टि यज्ञ किये जाते थे।
हमारे धर्म व संस्कृति का आधार वेद एवं वैदिक साहित्य है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। ईश्वर इस सृष्टि का रचयिता व समस्त प्राणि जगत का उत्पत्तिकर्ता है। वह बड़े से बड़े वैज्ञानिक से अधिक ज्ञानवान, बड़े से बड़े मनुष्य आदि प्राणी से कहीं अधिक बलवान ही नहीं अपितु सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापक, सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप, निराकार व सृष्टि का धारण व पोषण-कर्ता है। ईश्वर ने हमें मनुष्य का जन्म किसी विशेष उद्धेश्य व लक्ष्य की पूर्ति के लिये दिया है। हमें उसे जानना है। वह लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष है। दु:खो से निवृत्ति व आनन्द की प्राप्ति का मार्ग वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन-स्वाध्याय, याज्ञिक कार्य व वैदिक जीवन है।
पुराणों में भी इस प्रकार की होली का विधान होने का अनुमान नहीं है। पुराणों मे एक राजा हिरण्यककश्यपु, उसकी बहिन होलिका व पुत्र प्रहलाद् की कथा आती है जिसका उद्धेश्य ईश्वर की उपासना व भक्ति का सन्देश देना है जिससे लोग ईश्वर भक्ति मे प्रवृत्त हों। इस कथा का वर्तमान की होली से कोई सीधा व लाभकारी सम्बन्ध नहीं है।
होली के दिन फाल्गुन मास समाप्त होता है तथा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष का आरम्भ होता है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से नया वैदिक संवत्सर आरम्भ होता है। हमें लगता है कि होली का पर्व पुराने वर्ष को पूर्णिमा के दिन वृहत अग्निहोत्र-यज्ञ से विदाई देकर चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन एक प्रकार से नये वर्ष के स्वागत का पर्व भी है। पौराणिक परम्परा के अनुसार स्वागत के लिए पुष्पो व पुष्प-मालाओं का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार पुष्प भेंट कर यह दिखाया जाता है कि फूलों की तरह नाना रंगों से विभूषित व सुन्दर तथा उनकी सुगन्धि की महक से स्वयं को स्वस्थ कर रहे हैं।
होली का त्योहार विशुद्ध रूप से प्रकृति और मानव के संबंधों का त्यौहार है जो आज बदल चुका है। इसमें विकृति आ गई है जिससे हम वैदिक परंपराओं को भूलकर महज इसे एक रंगों का त्योहार मानने लगे हैं। होली के त्यौहार में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग न कर घातक रसायनों और पेंट आदि का प्रयोग किया जा रहा है, नशाखोरी की जा रही है। जो न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि समाज में भी वैमनस्यता पैदा करता है।
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