माता का समाज में सबसे बड़ा स्थान है

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गाजियाबाद (एसपी चौहान)
माता का समाज में सबसे बड़ा स्थान माना गया है। उसके कई कारण हैं। पिछले अंक में हमने बताया था कि तीन माता होती हैं। एक जननी माता, जो भौतिक माता होती है। दूसरी माता पृथ्वी माता होती है, जो यहां उत्पन्न हो जाने पर पालन पोषण करती है । तीसरी प्रभु माता, जो हमें मोक्ष प्रदान करती है।
     वेद का ऋषि कहता है कि जिस घर में माता का अपमान होता है, पुत्र माता का निरादर करता है, वह गृह- गृह नहीं होकर शमशान भूमि बन जाता है।
       माता तीन प्रकार की होती है एक माता जन्म देने वाली, दूसरी पृथ्वी माता, तीसरी गौ माता। जन्म देने वाली माता तो वह हुई जिसके गर्भ में हमारा जीवन पनपता है। दूसरी धरती माता जो हमारे जन्म लेने के बाद हमें खाने के लिए फल, खनिज, अन्न आदि प्रदान करती है, जिससे हमारा शरीर चलता है। तीसरी माता गौ माता जो हमें दूध देती है, जिसके दूध को पान कर हमारा शरीर बलिष्ठ बनता है। 
    हमारे ऋषियों ने बताया है कि जिस राजा के राष्ट्र में गौ की रक्षा होती है अर्थात पूजा होती है वहां किसी प्रकार की हानि नहीं होती।पूजा का अर्थ है- सदुपयोग। उसे अच्छा चारा आदि खिलाया जाए, जिससे वह हमारे लिए भरपूर दूध दे। क्योंकि दूध राष्ट्र की महान संपत्ति होती है ।
     जब माता तपस्वी बनकर मन, वचन व कर्म सभी तरह के पापों से दूर रहकर बालक को अपने गर्भ में पोषण करती है तो वह महान बालक को जन्म देती है। और जो माता श्रृंगारों से प्रदीप्त होकर कीड़े जैसे बच्चों को जन्म देती है, तो वह बालक श्रृंगार को हरण करने वाला बन जाता है। 
     वह माता सौभाग्यशाली है जो शरीर का श्रृंगार न करके मन बचन और कर्म का श्रृंगार करती है, अर्थात मन ,वचन और कर्म से जो माता समाज में अपना आदर्श प्रस्तुत करती हैं यही सौभाग्यशाली माता संस्कारी बालकों को जन्म देती है। तथा वह बालक राष्ट्र विधाता बनते हैं। पुत्र- पुत्री को जन्म देने वाली माता है तो बहुत होती हैं लेकिन वास्तविक माता वहीं है जो उसका पालन करके, निर्माण करके, पुत्र व पुत्री को महान बनाती है। वेद का ऋषि कहता है कि माता की सुंदरता उसकी त्वचा को सजाने संवारने में नहीं बल्कि यह तो मिट्टी है, एक दिन मिट्टी में मिल जाएगी। बल्कि माता की सुंदरता तो उसके कंठ में है, हृदय की दया है और उदारता है। 
      मां का तन और मन उसके वश में होना चाहिए। ऋषि कहता है कि माता तेरा आहार पवित्र हो होना चाहिए अर्थात जिस भोजन में हिंसा न हो, तेरा भक्ष्य अभक्ष्य पवित्र हो, जिससे तेरे गर्भ में शिशु के पालन  के समय शिशु में हिंसा का भाव ना आए। क्योंकि हे माता जो संस्कार तू गर्भ स्थल में परिणत कर देती है वह विद्यालयों में प्राप्त नहीं होते। ऐसा आयुर्वेद कहता है। यही वेद का वचन है। मां इसलिए महान होती है क्योंकि यह काम पिता नहीं कर सकता!

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